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ग़ज़ल
ये किस ने खींच दी साँसों की लक्ष्मण-रेखा
कि जिस्म जलता है बाहर जो पाँव धरते हैं
कृष्ण बिहारी नूर
ग़ज़ल
नहीं अब सोचना क्या हो चुका क्या होगा आगे
बस अब तो हाथ की रेखा का लिक्खा देखना है
हसन अब्बास रज़ा
ग़ज़ल
अब भी खड़ी है सोच में डूबी उजयालों का दान लिए
आज भी रेखा पार है रावण सीता को समझाए कौन
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
ग़ज़ल
उसी पर नाज़ करती है हमेशा हाथ की रेखा
कि जिस की मुट्ठी में भी विर्सा-ए-अज्दाद होता है