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ग़ज़ल
गले से लग ज़बाँ को छू कोई ख़्वाहिश भी पूरी कर
दिलासों से कहाँ ग़म की फ़ज़ा तब्दील होती है
तौहीद ज़ेब
ग़ज़ल
तसव्वुर से कहीं बढ़ कर कोई मंज़र भी देखूँगा
तिरे नौख़ेज़ दामन को कभी छू कर भी देखूँगा
वलीद अनवर वलीद
ग़ज़ल
कमाँ से तीर छूटे तो कभी वापस नहीं आता
मगर उस को ग़लत-फ़हमी मेरे बारे में रहती है
रहमान मुसव्विर
ग़ज़ल
जो लफ़्ज़ छोटे हैं किस तरह छू सकेंगे मुझे
ख़ुदा ने दी हैं सुख़न की बुलंदियाँ मुझ को
रईस-उस-शाकरी
ग़ज़ल
ये कहते हैं कि आशिक़ छूट जाता है अज़िय्यत से
जब उस की उम्र को लश्कर अजल का आन कर लूटे
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
उस की ज़िया से चाँदनी छिटकी उस की सदा से ग़ुंचे चटके
उस को छू कर क्या पूछो हो बाद-ए-सबा ने पैर निकाले