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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
अब तो हमें मंज़ूर है ये भी शहर से निकलीं रुस्वा हूँ
तुझ को देखा बातें कर लीं मेहनत हुई वसूल मियाँ
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
हम से जिस के तौर हों बाबा देखोगे दो एक ही और
कहने को तो शहर-ए-कराची बस्ती दिल-ज़दगाँ की है
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
ऐ सख़ियो ऐ ख़ुश-नज़रो यक गूना करम ख़ैरात करो
नारा-ज़नाँ कुछ लोग फिरें हैं सुब्ह से शहर-ए-निगार के बीच
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
ज़िंदगी का ढंग ये कैसा है तेरे शहर में
एक रोता है तो इक हँसता है तेरे शहर में