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ग़ज़ल
वो शाख़ों से जुदा होते हुए पत्तों पे हँसते थे
बड़े ज़िंदा-नज़र थे जिन को मर जाने की जल्दी थी
राहत इंदौरी
ग़ज़ल
नोच कर शाख़ों के तन से ख़ुश्क पत्तों का लिबास
ज़र्द मौसम बाँझ-रुत को बे-लिबासी दे गया
मोहसिन नक़वी
ग़ज़ल
आँगन के मा'सूम शजर ने एक कहानी लिक्खी है
इतने फल शाख़ों पे नहीं थे जितने पत्थर बिखरे हैं
राहत इंदौरी
ग़ज़ल
हर पत्ता ना-आसूदा है माहौल-ए-चमन आलूदा है
रह जाएँ लरज़ती शाख़ों पर दो चार गुलाब तो अच्छा हो