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ग़ज़ल
ये सारी आमद-ओ-रफ़्त एक जैसी तो नहीं 'शाहीन'
कि दुनिया में सफ़र कम कम है और हिजरत ज़ियादा है
शाहीन अब्बास
ग़ज़ल
फ़क़ीरान-ए-हरम के हाथ 'इक़बाल' आ गया क्यूँकर
मयस्सर मीर ओ सुल्ताँ को नहीं शाहीन-ए-काफ़ूरी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
हैं नवाह-ए-दिल में 'शाहीं' कुछ नशेबी बस्तियाँ
डूबता रहता हूँ उन में पानी भर जाने के बा'द