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ग़ज़ल
सलीक़ा जिन को होता है ग़म-ए-दौराँ में जीने का
वो यूँ शीशे को हर पत्थर से टकराया नहीं करते
नुशूर वाहिदी
ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
दिल से पहुँची तो हैं आँखों में लहू की बूँदें
सिलसिला शीशे से मिलता तो है पैमाने का
फ़ानी बदायुनी
ग़ज़ल
ठेस लगी है कैसी दिल पर हम से खिंचे से रहते हो
आख़िर प्यारे आया कैसे इस शीशे में बाल कहो