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ग़ज़ल
तुम्हारे हिज्र की रातों में जब तन्हाई डसती है
बजा कर अपनी हम साँसों की सरगम रक़्स करते हैं
निर्मल नदीम
ग़ज़ल
ढोर डंगर और पँख पखेरू हज़रत-ए-इंसाँ काठ कबाड़
इक सैलाब में बहते बहते सब का संगम होने लगा
अब्दुल हमीद
ग़ज़ल
वो सामने जब आ जाते हैं सकते का सा आलम होता है
उस दिल की तबाही क्या कहिए अमृत भी जिसे सम होता है