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ग़ज़ल
बहज़ाद लखनवी
ग़ज़ल
मैं हैरत ओ हसरत का मारा ख़ामोश खड़ा हूँ साहिल पर
दरिया-ए-मोहब्बत कहता है आ कुछ भी नहीं पायाब हैं हम
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
जब कश्ती साबित-ओ-सालिम थी साहिल की तमन्ना किस को थी
अब ऐसी शिकस्ता कश्ती पर साहिल की तमन्ना कौन करे
मुईन अहसन जज़्बी
ग़ज़ल
मोहब्बत में जो डूबा हो उसे साहिल से क्या लेना
किसे इस बहर में जा कर किनारा याद रहता है