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ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
शाएर-ए-फ़ितरत हूँ जब भी फ़िक्र फ़रमाता हूँ मैं
रूह बन कर ज़र्रे ज़र्रे में समा जाता हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
जीना वो क्या कि दिल में न हो तेरी आरज़ू
बाक़ी है मौत ही दिल-ए-बे-मुद्दआ के ब'अद