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ग़ज़ल
ख़ून-ए-नाहक़ की तरह गलियों में जब बहती है रात
ज़र्रा ज़र्रा चीख़ता है और चुप रहती है रात
इशरत आफ़रीं
ग़ज़ल
ख़ून-ए-नाहक़ थी फ़क़त दुनिया-ए-आब-ओ-गिल की बात
ये है महशर क्यूँ यहाँ हो दामन-ए-क़ातिल की बात
एजाज़ वारसी
ग़ज़ल
किसी के ख़ून-ए-नाहक़ की है सुर्ख़ी
रंगेंगी दस्त-ए-क़ातिल को हिना ख़ाक