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ग़ज़ल
मैं ने दिल दे कर उसे की थी वफ़ा की इब्तिदा
उस ने धोका दे के ये क़िस्सा मुकम्मल कर दिया
राहत इंदौरी
ग़ज़ल
क्या मुकम्मल है जुदाई कि बिछड़ जाने के ब'अद
तुझ से मिलने का बहाना भी नहीं छोड़ती है
मेराज फ़ैज़ाबादी
ग़ज़ल
हो न पाए जब मुकम्मल इश्क़ का क़िस्सा तो फिर
शोहरतें रहने दो अब गुम-नामियाँ ही ठीक हैं