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ग़ज़ल
ये जो हैं दो-चार शुरफ़ा-ए-अवध अख़्तर-शनास
कुछ दिनों में ये भी औराक़-ए-दीगर हो जाएँगे
फ़ुज़ैल जाफ़री
ग़ज़ल
गुमाँ तो ठीक मैं कैसे कहूँ यक़ीन भी है
कि मेरे पाँव के नीचे कहीं ज़मीन भी है
ख़्वाजा जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
तेरी गली में जो मिला उस से पता पूछा तिरा
सब तुझ से थे ना-आश्ना पर सब में था शोहरा तिरा
वहीद अख़्तर
ग़ज़ल
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
वो दिन भी थे कि मैं जान-ए-शबाब था 'अख़्तर'
अब अपने अहद-ए-जवानी की दास्ताँ हूँ मैं