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ग़ज़ल
नाला-ए-शबाना भी आह-ए-सुब्ह-गाही भी
क्या हयात-सामाँ है ग़म की बे-पनाही भी
मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा
ग़ज़ल
उस नज़र के उठने में उस नज़र के झुकने में
नग़मा-ए-सहर भी है आह-ए-सुब्ह-गाही भी
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
न जाने कौन से ख़ुश-बख़्त का ये क़ौल है 'अरशद'
कि आह-ए-सुब्ह-गाही में बड़ी तासीर होती है
अर्शद बिजनौरी
ग़ज़ल
दिखावे आइना किस मुँह से उस को मुँह अपना
कि आफ़्ताब को जूँ शम-ए-सुब्ह-गाह करे