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ग़ज़ल
उस दरबार में लाज़िम था अपने सर को ख़म करते
वर्ना कम-अज़-कम अपनी आवाज़ ही मद्धम करते
हैदर क़ुरैशी
ग़ज़ल
वो बूढ़ा इक ख़्वाब है और इक ख़्वाब में आता रहता है
इस के सर पर अन-देखा पंछी मंडलाता रहता है
ज़ुल्फ़िक़ार आदिल
ग़ज़ल
अक़्ल गई है सब की खोई क्या ये ख़ल्क़ दिवानी है
आप हलाल मैं होता हूँ इन लोगों को क़ुर्बानी है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
मोहब्बत का तिरी बंदा हर इक को ऐ सनम पाया
बराबर गर्दन-ए-शाह-ओ-गदा दोनों को ख़म पाया
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
मिरी दास्तान-ए-अलम तो सुन कोई ज़लज़ला नहीं आएगा
मिरा मुद्दआ' नहीं आएगा तिरा तज़्किरा नहीं आएगा
बेदिल हैदरी
ग़ज़ल
कभी तो बैठूँ हूँ जा और कभी उठ आता हूँ
मनूँ हूँ आप ही फिर आफी रूठ जाता हूँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
दुनिया से हर रिश्ता तोड़ा ख़ुद से रु-गर्दानी की
सिर्फ़ तुम्हारा ध्यान रखा और जीने में आसानी की
अहमद शहरयार
ग़ज़ल
मुद्दआ दिल का कभी लब आश्ना होता नहीं
इश्क़ का मफ़्हूम लफ़्ज़ों में अदा होता नहीं