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ग़ज़ल
शिबली नोमानी
ग़ज़ल
तीस दिन के लिए तर्क-ए-मय-ओ-साक़ी कर लूँ
वाइज़-ए-सादा को रोज़ों में तो राज़ी कर लूँ
शिबली नोमानी
ग़ज़ल
जो उन में हो रहा है वो तमाशा भी नहीं दिखता
हुआ क्या है उन आँखों को जो इतना भी नहीं दिखता
इम्तियाज़ ख़ान
ग़ज़ल
अपनी तरह इस वहशत-गाह में हर उन्वान से रुस्वा है
जब से फ़ुग़ान-ए-नीम-शबी मम्नून-ए-बाब-ए-असर न रही
मुख़्तार सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
हुस्न ख़ुद जल्वा-नुमाई पे है मजबूर मियाँ
जानिए इश्क़ को एक मुजरिम-ए-मा'ज़ूर मियाँ