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ग़ज़ल
मालिक से और मिट्टी से और माँ से बाग़ी शख़्स
दर्द के हर मीसाक़ से रु-गर्दानी करता है
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
ख़ुद तो बाग़ी हुए हम तुझ से मगर साथ ही साथ
दिल-ए-रुस्वा को तिरे ज़ेर-ए-नगीं रहने दिया
ज़फ़र इक़बाल
ग़ज़ल
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
ख़िज़्र-सुल्ताँ को रखे ख़ालिक़-ए-अकबर सरसब्ज़
शाह के बाग़ में ये ताज़ा निहाल अच्छा है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
साँस लेता हूँ तो चुभती हैं बदन में हड्डियाँ
रूह भी शायद मिरी अब मुझ से बाग़ी हो गई
मुज़फ़्फ़र वारसी
ग़ज़ल
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
बाग़-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्यूँ
कार-ए-जहाँ दराज़ है अब मिरा इंतिज़ार कर
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
बाग़ी ना-फ़रमान बनी और कभी कलंक का टीका
हक़ की ख़ातिर जब भी किसी उसूल पे अड़ गई बेटी
समीना असलम समीना
ग़ज़ल
बाग़ में लगता नहीं सहरा से घबराता है दिल
अब कहाँ ले जा के बैठें ऐसे दीवाने को हम