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ग़ज़ल
क्या ही शिकार-फ़रेबी पर मग़रूर है वो सय्याद बचा
ताइर उड़ते हवा में सारे अपने असारा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
तू बचा बचा के न रख इसे तिरा आइना है वो आइना
कि शिकस्ता हो तो अज़ीज़-तर है निगाह-ए-आइना-साज़ में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझ से बचा कर दामन
मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझ को
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
दो-चार दिन की बात है दिल ख़ाक में मिल जाएगा
जब आग पर काग़ज़ रखा बाक़ी बचा कुछ भी नहीं
बशीर बद्र
ग़ज़ल
जो नज़र बचा के गुज़र गए मिरे सामने से अभी अभी
ये मिरे ही शहर के लोग थे मिरे घर से घर है मिला हुआ
इक़बाल अज़ीम
ग़ज़ल
तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाख़ुदा दुनिया
बचा सको तो बचा लो कि डूबता हूँ मैं