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ग़ज़ल
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
यूँ तकब्बुर न करो हम भी हैं बंदे उस के
सज्दे बुत करते हैं हामी जो ख़ुदा होता है
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल
ये हवस के बंदे हैं नासेहा न समझ सके मिरा मुद्दआ'
मुझे प्यार है किसी और से मिरा दिल-रुबा कोई और है
दर्शन सिंह
ग़ज़ल
न ईराँ में रहे बाक़ी न तूराँ में रहे बाक़ी
वो बंदे फ़क़्र था जिन का हलाक-ए-क़ैसर-ओ-किसरा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा
यूँही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे