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ग़ज़ल
ज़माना आया है बे-हिजाबी का आम दीदार-ए-यार होगा
सुकूत था पर्दा-दार जिस का वो राज़ अब आश्कार होगा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
दिखाई जाएगी शहर-ए-शब में सहर की तमसील चल के देखें
सर-ए-सलीब ईस्तादा होगा ख़ुदा-ए-इंजील चल के देखें
आफ़ताब इक़बाल शमीम
ग़ज़ल
फिर चराग़-ए-लाला से रौशन हुए कोह ओ दमन
मुझ को फिर नग़्मों पे उकसाने लगा मुर्ग़-ए-चमन
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
या रब ये जहान-ए-गुज़राँ ख़ूब है लेकिन
क्यूँ ख़्वार हैं मर्दान-ए-सफ़ा-केश ओ हुनर-मंद
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
छिड़ा है राग भौंरे का हवा की है नई धुन भी
ग़ज़ब है साल के बारह महीनों में ये फागुन भी
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
कोई ये 'इक़बाल' से जा कर ज़रा पूछे 'ज़िया'
मुद्दतों से क्यूँ तिरी बाँग-ए-दरा ख़ामोश है
मोहम्मद सादिक़ ज़िया
ग़ज़ल
हाँ उसी दिन धूप में हरियालियाँ शामिल हुईं
इस ज़मीं की ज़र्दियों में लालियाँ शामिल हुईं
आफ़ताब इक़बाल शमीम
ग़ज़ल
दिल-ए-मायूस में वो शोरिशें बरपा नहीं होतीं
उमीदें इस क़दर टूटीं कि अब पैदा नहीं होतीं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
बाग़ में जब कि वो दिल ख़ूँ-कुन-ए-हर-गुल पहुँचे
बिलबिलाती हुई गुलज़ार में बुलबुल पहुँचे