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ग़ज़ल
मय-कदा बे-जाम-ए-चश्म-ए-यार मातम-ख़ाना था
दीदा-ए-पुर-ख़ूँ मिरी आँखों में हर पैमाना था
रशीद रामपुरी
ग़ज़ल
इस हवा में रहम कर साक़ी कि बे-जाम-ए-शराब
देख कर छाती भरी आती है बाराँ की तरफ़
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
ग़ज़ल
मैं उस निगाह-ए-मस्त का मख़मूर हूँ 'जुनूँ'
बे-जाम-ओ-शीशा जिस ने पिलाई तमाम रात