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ग़ज़ल
हुआ जब ग़म से यूँ बे-हिस तो ग़म क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से तो ज़ानू पर धरा होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
भूक से रिश्ता टूट गया तो हम बेहिस हो जाएँगे
अब के जब भी क़हत पड़े तो फ़सलें पैदा मत करना
शहरयार
ग़ज़ल
इस बेहिस दुनिया के आगे किसी लहर की पेश नहीं जाती
अब बहर का बहर उछाल कोई इसे ज़ेर-ओ-ज़बर करने के लिए
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
इन को बेहिस जान न साक़ी अव्वल-ए-शब है बादा-नोश
रात ढले महसूस करेंगे शीशे की झंकार बहुत
रसा चुग़ताई
ग़ज़ल
हमारी तहरीरें वारदातें बहुत ज़माने के बाद होंगी
रवाँ ये बे-हिस उदास नहरें हमारे जाने के बाद होंगी
मुसव्विर सब्ज़वारी
ग़ज़ल
ख़ुदा की मस्लहत कुछ इस में होगी वर्ना बेहिस बुत
किसे शादाँ बनाते हैं किसे नाशाद करते हैं
सरस्वती सरन कैफ़
ग़ज़ल
बे-हिस दीवारों का जंगल काफ़ी है वहशत के लिए
अब क्यूँ हम सहरा को जाएँ अब वैसे हालात कहाँ
राही मासूम रज़ा
ग़ज़ल
कभी मैं बेहिस-ओ-हरकत पड़ा रहता हूँ पहरों तक
कभी मैं ज़िंदगी के साज़ पर नग़्मे सुनाता हूँ