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ग़ज़ल
ज़मीन-ए-दर्द में चाहत वफ़ा के बीज बोती है
तो क्या क्या जावेदाँ लम्हात की तख़्लीक़ होती है
जमील मलिक
ग़ज़ल
कोई मौसम मेरी उम्मीदों को रास आया नहीं
फ़स्ल अँधियारों की काटी और दिए बोती रही
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
ग़ज़ल
न पूछो अक़्ल की चर्बी चढ़ी है उस की बोटी पर
किसी शय का असर होता नहीं कम-बख़्त मोटी पर
सलीम अहमद
ग़ज़ल
जिगर खाने में अपने फ़ाएदा अज़-बस, तू क्या जाने
वो जाने चाशनी चक्खी हो जिस ने दिल की बोटी की