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ग़ज़ल
हमारे घर की बुनियादों के पत्थर क्या हुए आख़िर
कहीं तूफ़ान के टुकड़े कहीं सैलाब रक्खे हैं
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
ग़ज़ल
लाख बुनियादों में तू ने ढक के रक्खा है मुझे
ऐ हवेली के खंडर अब भी तरह हिस्सा हूँ मैं
शाहिद जमाल
ग़ज़ल
मैं अब के उस की बुनियादों में लाशें चुन रहा हूँ
इमारत कोई क़स्र-ए-दिल-बराना चाहती है
अब्दुर रऊफ़ उरूज
ग़ज़ल
हम ने जिस की बुनियादों में साँस का सीसा डाला था
मिट्टी रेत और गारे निकले रात सफ़र सहरा और मैं
नादिया अंबर लोधी
ग़ज़ल
दफ़्न कर के इस की बुनियादों में इंसानों के सर
इक मोहज़्ज़ब शहर की ता'मीर कर दी जाएगी
सरवर अरमान
ग़ज़ल
सारी शक्लें धुँदली धुँदली मुबहम सा है मंज़र भी
ख़्वाब की कच्ची बुनियादों पर करनी है ता'मीर बहुत
क़मर सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
चारों तरफ़ कुछ दीवारें सी रहती हैं आहों में लगी
मेरी मिट्टी तेरे घर की गहरी बुनियादों में लगी
आबिद जाफ़री
ग़ज़ल
कोहना बुनियादों पे ढोते रहें ख़ुद को कब तक
चाहिए अब कि हो ता'मीर-ए-मकाँ अज़-सर-ए-नौ