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ग़ज़ल
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
आँख छुप-छुप कर मिलाने का मज़ा कुछ और है
हाथों हाथों से छुड़ाने का मज़ा कुछ और है
भगवान खिलनानी साक़ी
ग़ज़ल
सुनते हैं फिर छुप छुप उन के घर में आते जाते हो
'इंशा' साहब नाहक़ जी को वहशत में उलझाते हो
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
क्या दिन थे जब छुप छुप कर तुम पास हमारे आते थे
काँपते थे बदनामी के डर से आँसू पी पी जाते थे
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
ग़ज़ल
आँखों में नमी सी है चुप चुप से वो बैठे हैं
नाज़ुक सी निगाहों में नाज़ुक सा फ़साना है