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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
ख़ुद ही झुकता हूँ कि दावा-ए-जुनूँ क्या कीजिए
कुछ गवारा भी है ये क़ैद-ए-दर-ओ-बाम अभी
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
बशर को देखिए दा'वा है तस्ख़ीर-ए-दो-आलम का
ख़ुदा जाने ये क्या कर दे अगर मुख़्तार हो जाए
कँवल एम ए
ग़ज़ल
जुनूँ ने आलम-ए-वहशत में जो राहें निकाली हैं
ख़िरद के कारवाँ आख़िर उन्ही राहों पे चलते हैं
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
दा'वा-ए-मोहब्बत है जिन्हें आज चमन से
माज़ी में वही देश के ग़द्दार रहे हैं
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
कोई मिलता ही नहीं वाक़िफ़-ए-आदाब-ए-जुनूँ
अब तो बस्ती ही अलग अपनी बसा ली जाए