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ग़ज़ल
इस क़दर ज़ोफ़ में आवाज़ निकलती तो कहाँ
हम से ज़ंजीर-ए-दर-ए-यार हिलाई न गई
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
होना है जो हस्ती को मिरी ख़ाक ही 'सीमाब'
पहले ही से क्यूँ ख़ाक-ए-दर-ए-यार न हो जाए
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
बुरे भले से किसी के ग़रज़ नहीं 'बे-गुन'
हमारा जिस्म है याँ जान कू-ए-यार में है
सिपाह दार ख़ान बेगुन
ग़ज़ल
तू गया घर में मुझे छोड़ के तन्हा जब से
सर पटकते हैं सितमगर दर-ओ-दीवार से हम
सिपाह दार ख़ान बेगुन
ग़ज़ल
तज दिया तुम ने दर-ए-यार भी उकता के 'फ़राज़'
अब कहाँ ढूँढने ग़म-ख़्वार तुम्हारे जाएँ
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
ज़ंजीर-ए-दर-ए-यार पे रहती हैं निगाहें
फज्र-ओ-ज़ुहर-ओ-अस्र या तारीकी-ए-शब हो