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ग़ज़ल
शेर दो हैं हज़रत-ए-ग़ालिब के दीवाँ में 'अज़ीज़'
ये ग़ज़ल मेरी उसी मय का ख़ुमार-ए-नग़्मा है
अज़ीज़ हैदराबादी
ग़ज़ल
शब ख़ुमार-ए-शौक़-ए-साक़ी रुस्तख़ेज़-अंदाज़ा था
ता-मुहीत-ए-बादा सूरत ख़ाना-ए-ख़म्याज़ा था
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
जो भी तख़्त पे आ कर बैठा उस को यज़्दाँ मान लिया
आप बहुत ही दीदा-वर थे मौसम को पहचान लिया
सय्यद नसीर शाह
ग़ज़ल
इक इक कर के हो गए रुख़्सत अब कोई अरमान नहीं
दिल में गहरा सन्नाटा है अब कोई मेहमान नहीं