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ग़ज़ल
धार पे बाड़ रखी जाए और हम उस के घायल ठहरें
मैं ने देखा और नज़रों से उन पलकों की धार गिरी
जौन एलिया
ग़ज़ल
मिटाए दीदा-ओ-दिल दोनों मेरे अश्क-ए-ख़ूनीं ने
'अजब ये तिफ़्ल अबतर था न घर रक्खा न दर रक्खा
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
मुझ को कुछ ऐसा लगा कि मर के ज़िंदा हो गया
अपने ही साए से जैसे डर चुका कमरे में वो