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ग़ज़ल
शफ़क़ धनक महताब घटाएँ तारे नग़्मे बिजली फूल
इस दामन में क्या क्या कुछ है दामन हाथ में आए तो
अंदलीब शादानी
ग़ज़ल
महरम है हबाब-ए-आब-ए-रवाँ सूरज की किरन है उस पे लिपट
जाली की कुर्ती है वो बला गोटे की धनक फिर वैसी ही
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
बन गई नक़्श जो सुर्ख़ी तिरे अफ़्साने की
वो शफ़क़ है कि धनक है कि हिना है क्या है
नक़्श लायलपुरी
ग़ज़ल
ज़र्द चेहरों पर भी चमके सुर्ख़ जज़्बों की धनक
साँवले हाथों को भी रंग-ए-हिना रौशन करे