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ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
बे-तकल्लुफ़ आए तुम खोले हुए बंद-ए-क़बा
अब गिरह दिल की हमारे फ़िल-हक़ीक़त खुल गई
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
जान ओ दिल पर जितने सदमे हैं इसी के दम से हैं
ज़िंदगी है फ़िल-हक़ीक़त दुश्मन-ए-जानी मिरी
तिलोकचंद महरूम
ग़ज़ल
फ़िल-हक़ीक़त ये भी कम गुलज़ार-ए-जन्नत से नहीं
हूरें फिरती हैं सर-ए-बाज़ार क़ैसर-बाग़ में
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
गुज़रती हैं जो फ़ील-ए-शब पे सज-धज कर तिरी यादें
हम उन पर अपने सग-हा-ए-तमन्ना छोड़ देते हैं
मोहम्मद आज़म
ग़ज़ल
इल्तिजा-ए-वस्ल पर महशर में वो कहने लगे
अपने वा'दे की वफ़ा फ़िल-फ़ौर कोई क्यूँ करे