aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "fikr o nazar abul kalam aazad number magazines"
फिर हश्र के पर्दा में तक़दीर नज़र आईआईना-ए-वहशत में तस्वीर नज़र आई
दूर से शहर-ए-फ़िक्र सुहाना लगता हैदाख़िल होते ही हर्जाना लगता है
बहुत मलूल बड़े शादमाँ गए हुए हैंहम आज हम-रह-ए-गुम-गश्तगाँ गए हुए हैं
नाला-ए-दिल निकल न जाए कहींशान-ए-हस्ती बदल न जाए कहीं
जो कुछ भी ये जहाँ की ज़माने की घर की हैरूदाद एक लम्हा-ए-वहशत-असर की है
बस इक कशाकश का सिलसिला है अज़ल से जो आज तक रहा हैफ़लक की मुनकिर ज़मीं रही है ज़मीं का मुनकिर फ़लक रहा है
निगाह आसी की रोज़-ए-महशर अमीन-ए-रहमत को तक रही हैअजीब आलम है बेकसी का नज़र से हसरत टपक रही है
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