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ग़ज़ल
सुनी न मिस्र ओ फ़िलिस्तीं में वो अज़ाँ मैं ने
दिया था जिस ने पहाड़ों को रा'शा-ए-सीमाब
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
क्या ही अच्छा था शह-ए-वक़्त कि ऐसा होता
दुख फ़िलिस्तीं का भी होता तुझे कश्मीर के साथ