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ग़ज़ल
दुश्मन को तिरे गाड़ूँ मैं ऐ जान-ए-जहाँ बस
तू मुझ को दिलाया न कर इस तौर की क़स्में
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
मैं इन चाँदी के बाज़ारों पे अपने दाँत क्या गाड़ूँ
चमकती फीकी पड़ती सब दूकानें घटती बढ़ती हैं
कलीम हैदर शरर
ग़ज़ल
उस की सुख़न-तराज़ियाँ मेरे लिए भी ढाल थीं
उस की हँसी में छुप गया अपने ग़मों का हाल भी
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
और क्या इस से ज़ियादा कोई नरमी बरतूँ
दिल के ज़ख़्मों को छुआ है तिरे गालों की तरह
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
थीं बनात-उन-नाश-ए-गर्दुं दिन को पर्दे में निहाँ
शब को उन के जी में क्या आई कि उर्यां हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ऐ इश्क़ ये सब दुनिया वाले बे-कार की बातें करते हैं
पायल के ग़मों का इल्म नहीं झंकार की बातें करते हैं
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
बरस रही है हरीम-ए-हवस में दौलत-ए-हुस्न
गदा-ए-इश्क़ के कासे में इक नज़र भी नहीं