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ग़ज़ल
मैं ही अपना मोहतसिब बन जाऊँ वर्ना दोस्तो
गुमरह-ए-मंज़िल हूँ या हूँ राह पर देखेगा कौन
मंज़र भोपाली
ग़ज़ल
मिरे इस हाल से गुमराह हो जाते हैं रहबर भी
मैं अक्सर रास्ते में अपना ही घर भूल जाता हूँ