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ग़ज़ल
चाँदनी रातें बहार अपनी दिखाती हैं तो क्या
बे तिरे मुझ को तो लुत्फ़ ऐ मह-लक़ा मिलता नहीं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
ज़माने में हमेशा हर महीने चाँद होता है
तिरा जल्वा नज़र आता नहीं ऐ मह-लक़ा बरसों
लाला माधव राम जौहर
ग़ज़ल
उन से कह दे ये कोई जा के पयाम-ए-'शैदा'
ध्यान रखना मिरा ऐ माह-लक़ा मेरे बा'द
अब्दुल मजीद ख़्वाजा शैदा
ग़ज़ल
गुल की बहार गुलसिताँ में चंद रोज़ है
अच्छा नहीं है इस क़दर ऐ मह-लक़ा दिमाग़
सरदार गेंडा सिंह मशरिक़ी
ग़ज़ल
तू हमेशा ऐ बुत-ए-मह-लक़ा रहा महव अपनी ही शक्ल का
तिरे अक्स-ए-हुस्न की आरसी तिरे सामने ही धरी रही
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
रखते हैं मेरे अश्क से ये दीदा-ए-तर फ़ैज़
दामन में लिया अपने है दरिया ने गुहर फ़ैज़
मह लक़ा चंदा
ग़ज़ल
जो कुछ है हुस्न में हर मह-लक़ा को ऐश-ओ-तरब
वही है इश्क़ में हर मुब्तला को ऐश-ओ-तरब
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
रहे नौ-रोज़ इशरत-आफ़रीं जोश-ए-बहार-अफ़्ज़ा
गुल-अफ़शाँ है करम तेरा चमन में दहर के हर जा
मह लक़ा चंदा
ग़ज़ल
है इसी में क़ल्ब-ए-महज़ूँ शर्तिया कहता हूँ मैं
खोल मुट्ठी तेरी चोरी मह-लक़ा पकड़ी गई
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
बसंत आई है मौज-ए-रंग-ए-गुल है जोश-ए-सहबा है
ख़ुदा के फ़ज़्ल से ऐश-ओ-तरब की अब कमी क्या है
मह लक़ा चंदा
ग़ज़ल
दिल में मिरे ख़याल-ए-रुख़-ए-मह-जबीं रहा
साया परी का शीशे में सूरत-गुज़ीं रहा
मुंशी मोहम्मद हयात ख़ाँ मज़हर
ग़ज़ल
रुख़ उस का देख हुआ ज़र्द नय्यर-ए-आज़म
सुनहरे बुर्ज से जिस दम वो मह-लक़ा निकला
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
ये शब-ए-माहताब है साफ़ हमें जवाब है
माह-लक़ा हैं मुंतज़िर मिल के दिखा बहार-ए-शब