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ग़ज़ल
रू-ब-रू उस के कभू बात न सुधरी हम से
हिल्म है चैन है दहशत है हया है क्या है
बयाँ अहसनुल्लाह ख़ान
ग़ज़ल
उफ़ ये ज़मीं की गर्दिशें आह ये ग़म की ठोकरें
ये भी तो बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता के शाने हिला के रह गईं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
ज़माने को हिला देने के दावे बाँधने वालो
ज़माने को हिला देने की ताक़त हम भी रखते हैं
जोश मलसियानी
ग़ज़ल
वो हीला-गर जो वफ़ा-जू भी है जफ़ा-ख़ू भी
किया भी 'फ़ैज़' तो किस बुत से दोस्ताना किया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
माँगूँ तो सही बोसा पर क्या है इलाज इस का
याँ होंट का हिल जाना वाँ बात का पा जाना