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ग़ज़ल
टेढ़े न हो हम से रखो इख़्लास तो सीधा
तुम प्यार से रुकते हो तो लो प्यार भी छोड़ा
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़
अक़्ल कहती है कि वो बे-मेहर किस का आश्ना
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तेरे इख़्लास के अफ़्सूँ तिरे वादों के तिलिस्म
टूट जाते हैं तो कुछ और मज़ा देते हैं