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ग़ज़ल
ग़म नतीजा है ख़ुशी की इंतिहा का ऐ 'कलीम'
दिल की इक इक मौज मौज-ए-शादमानी हो तो क्या
कलीम अहमदाबादी
ग़ज़ल
गुनाहगार की सुन लो तो साफ़ साफ़ ये है
कि लुत्फ़-ए-रहम-ओ-करम क्या फिर इंतिक़ाम के बाद