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ग़ज़ल
सर-ए-राह कुछ भी कहा नहीं कभी उस के घर मैं गया नहीं
मैं जनम जनम से उसी का हूँ उसे आज तक ये पता नहीं
बशीर बद्र
ग़ज़ल
कभी पा के तुझ को खोना कभी खो के तुझ को पाना
ये जनम जनम का रिश्ता तिरे मेरे दरमियाँ है
बशीर बद्र
ग़ज़ल
कुछ तो रेत की प्यास बुझाओ जनम जनम की प्यासी है
साहिल पर चलने से पहले अपने पाँव भिगो लेना
बशीर बद्र
ग़ज़ल
जनम जनम के सातों दुख हैं उस के माथे पर तहरीर
अपना आप मिटाना होगा ये तहरीर मिटाने में
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
हर जनम में मुझे यादों के खिलौने दे के
वो बिछड़ता रहा मुझ से मिरा बचपन बन के
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
ग़ज़ल
इस जनम में तो कभी मैं न उधर से गुज़रा
तेरी राहों में मिरे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा कैसे