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ग़ज़ल
तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए
इस सई-ए-करम को क्या कहिए बहला भी गए तड़पा भी गए
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
रूदाद-ए-मोहब्बत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए
दो दिन की मसर्रत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए
साग़र सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
बोसे की तो है ख़्वाहिश पर कहिए क्यूँकि उस से
जिस का मिज़ाज लब पर हर्फ़-ए-सवाल बाँधे