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ग़ज़ल
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
बहज़ाद लखनवी
ग़ज़ल
'फ़ैज़' दिलों के भाग में है घर भरना भी लुट जाना भी
तुम इस हुस्न के लुत्फ़-ओ-करम पर कितने दिन इतराओगे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए
इस सई-ए-करम को क्या कहिए बहला भी गए तड़पा भी गए
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
सितम के रंग हैं हर इल्तिफ़ात-ए-पिन्हाँ में
करम-नुमा हैं तिरे जौर सर-ब-सर फिर भी
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
ये करम है दोस्तों का, वो जो कह रहे हैं सब से
कि 'नसीर' पर इनायत कभी थी न है न होगी