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ग़ज़ल
तरब-आशना-ए-ख़रोश हो तू नवा है महरम-ए-गोश हो
वो सरोद क्या कि छुपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ए-साज़ में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
हर जज़्र-ओ-मद से दस्त-ओ-बग़ल उठते हैं ख़रोश
किस का है राज़ बहर में यारब कि ये हैं जोश
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
क़तरे की पहचान ही दरिया में गुम हो जाना है कभी
कैसा जोश-ओ-ख़रोश है उस की मुलाक़ात के बारे में
ज़फ़र इक़बाल
ग़ज़ल
तेरे दीवानों का देखे तो कोई जोश-ओ-ख़रोश
सू-ए-महशर भी हैं इक शोर मचाते जाते