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ग़ज़ल
क़त्ल-ए-आशिक़ किसी मा'शूक़ से कुछ दूर न था
पर तिरे अहद से आगे तो ये दस्तूर न था
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
मदरसा या दैर था या काबा या बुत-ख़ाना था
हम सभी मेहमान थे वाँ तू ही साहब-ख़ाना था
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
बाग़-ए-जहाँ के गुल हैं या ख़ार हैं तो हम हैं
गर यार हैं तो हम हैं अग़्यार हैं तो हम हैं
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
हर चीज़ में अक्स-ए-रुख़-ए-ज़ेबा नज़र आया
आलम मुझे सब जल्वा ही जल्वा नज़र आया