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ग़ज़ल
निशाँ इल्म-ओ-अदब का अब भी है उजड़े दयारों में
कि 'सालिम' और 'मुज़्तर' हैं पुरानी यादगारों में
साहिर देहल्वी
ग़ज़ल
दिल तो हाज़िर है अगर कीजिए फिर नाज़ से रम्ज़
हैं तिरे नाज़ के सदक़े इसी अंदाज़ से रम्ज़
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
ग़ज़ल
दुनिया की जफ़ाएँ भूल गईं तक़दीर का शिकवा भूल गए
जब उन से निगाहें चार हुईं सब अपना-पराया भूल गए
अदीब मालेगांवी
ग़ज़ल
अपने ही दिल की बात से महका गया हूँ मैं
अपने ही रूह-ओ-जिस्म में घुलता गया हूँ मैं
आदिल असीर देहलवी
ग़ज़ल
अच्छी नहीं सवाल पे साइल से छेड़-छाड़
की क्या समझ के तुम ने मिरे दिल से छेड़-छाड़