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ग़ज़ल
क्या मज़ा देती है बिजली की चमक मुझ को 'रियाज़'
मुझ से लपटे हैं मिरे नाम से डरने वाले
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
ऐ तअ'स्सुब ज़दा दुनिया तिरे किरदार पे ख़ाक
बुग़्ज़ की गर्द में लपटे हुए मेआ'र पे ख़ाक
अहमद ख़याल
ग़ज़ल
तू ने देखा है कभी एक नज़र शाम के बा'द
कितने चुप-चाप से लगते हैं शजर शाम के बा'द
फ़रहत अब्बास शाह
ग़ज़ल
ता-कुजा ये पर्दा-दारी-हा-ए-इश्क़-ओ-लाफ़-ए-हुस्न
हाँ सँभल जाएँ दो-आलम होश में आता हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
कहा कि ''अर्ज़ करें हम पे जो गुज़रता है?''
कहा ''ख़बर है हमें क्यूँ ज़बाँ पे लाते हो''