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ग़ज़ल
कलेजा मुँह को आता है शब-ए-फ़ुर्क़त जब आती है
अकेले मुँह लपेटे रोते रोते जान जाती है
आसी ग़ाज़ीपुरी
ग़ज़ल
शहर मकान दुकानों वाले सब पर्दे किरनों ने लपेटे
ख़त्म हुआ सब खेल-तमाशा जा अब घर जा रात हुई
बशीर बद्र
ग़ज़ल
सोते हों चाँदनी में वो मुँह लपेटे और हम
शबनम का वो दुपट्टा पट्ठे उलट रहे हों