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ग़ज़ल
सुख़न क्या कह नहीं सकते कि जूया हूँ जवाहिर के
जिगर क्या हम नहीं रखते कि खोदें जा के मादन को
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ज़िदों को अपनी तराशो और उन को ख़्वाब करो
फिर उस के बा'द ही मंज़िल का इंतिख़ाब करो