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ग़ज़ल
कैसे इन आँखों से देखूँ माह-ए-कामिल की तरफ़
मैं ने देखा है जमाल-ए-रौनक़-ए-दिल की तरफ़
जौहर ज़ाहिरी
ग़ज़ल
माह-ए-कामिल हो मुक़ाबिल यार के रू से चे-ख़ुश
ख़म हो दम मारे हिलाल उस तेग़-ए-अबरू से चे-ख़ुश
वली उज़लत
ग़ज़ल
लगता है जिस का रुख़-ए-ज़ेबा मह-ए-कामिल मुझे
उस ने ही समझा न लेकिन प्यार के क़ाबिल मुझे
शाहिद ग़ाज़ी
ग़ज़ल
हो न रुस्वा-ए-ज़माना मह-ए-कामिल की तरह
मेरे सीने में रहो आ के मिरे दिल की तरह
मुंशी शिव परशाद वहबी
ग़ज़ल
आरज़ू-ए-हूर क्या हो 'नाज़' दिल दे कर उन्हें
शम्अ पर क्या आँख डालें माह-ए-कामिल देख कर
शेर सिंह नाज़ देहलवी
ग़ज़ल
अक्स-ए-रुख़्सार ने किस के है तुझे चमकाया
ताब तुझ में मह-ए-कामिल कभी ऐसी तो न थी
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
जा गिरा हूँ उठ के मस्जिद से मैं किस की राह में
ये कशिश किस के रुख़-ए-रश्क-ए-मह-ए-कामिल में है
नबी बख़्श नायाब
ग़ज़ल
मह-ए-कनआँ को मेरे इस मह-ए-कामिल से क्या निस्बत
ज़ुलेख़ा के मुलव्विस दिल को मेरे दिल से क्या निस्बत
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
वो इंसाँ है मलक सज्दे गुज़ारें जिस के दामन पर
वो ज़र्रा क्या जो हम-दोश-ए-मह-ए-कामिल नहीं होता