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ग़ज़ल
उम्र-ए-फ़ानी को हयात-ए-जाविदाँ समझा था मैं
थी ख़िज़ाँ जिस को बहार-ए-गुलसिताँ समझा था मैं
अब्दुल क़य्यूम ज़की औरंगाबादी
ग़ज़ल
ख़ुद ही महबूब लिए अपना पयाम आया है
मंज़िल-ए-इश्क़ में ऐसा भी मक़ाम आया है
अब्दुल क़य्यूम ज़की औरंगाबादी
ग़ज़ल
कहाँ थे शब इधर देखो हया क्यूँ है निगाहों में
अगर मंज़ूर है रख लो मुझे झूटे गवाहों में
अब्दुल रहमान रासिख़
ग़ज़ल
क्या करें क्यूँ-कर रहें दुनिया में यारो हम ख़ुशी
हम को रहने ही नहीं देता है हरगिज़ ग़म ख़ुशी
ताबाँ अब्दुल हई
ग़ज़ल
फिर आया जाम-ब-कफ़ गुल-एज़ार ऐ वाइज़
शिकस्त-ए-तौबा की फिर है बहार ऐ वाइज़
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
ग़ज़ल
सुन रख ओ ख़ाक में आशिक़ को मिलाने वाले
अर्श-ए-आज़म के ये नाले हैं बुलाने वाले