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ग़ज़ल
अब मुझ को एहतिमाम से कीजे सुपुर्द-ए-ख़ाक
उक्ता चुका हूँ जिस्म का मलबा उठा के मैं
दिलावर अली आज़र
ग़ज़ल
ऐ अज़ीज़ो! मुझे मिट्टी के हवाले कर दो
मुझ से अब जिस्म का मलबा नहीं देखा जाता
हाशिम रज़ा जलालपुरी
ग़ज़ल
लो अब हमारी सक़ील आँखें क़दीम रस्तों पे चल पड़ी हैं
वफ़ा के खंडर से कुछ परे ही हमारा मलबा पड़ा हुआ है